मेरी कश्ती तुझसे जुदा भले हो,
मेरा तूफ़ाँ तुझसे जुदा नहीं,
है फ़र्क़ तो बस एक हद-ए-तबाही,
तू पूरा डूबा नहीं, मैं पूरा बचा नहीं
तू रह ना सका दीवारों में,
रोटी की ख़ातिर बाज़ारों में,
मैं घर से काम को करता रहा,
ज़रूर फ़र्क़ है इन व्यापारों में
कई जाम लिए हैं हाथों में,
कई जामों में बर्बाद हुए,
कई घर के अंदर क़ैद हुए,
कई खुद के अंदर शाद हुए
कुछ नक़ाब से कोसों दूर रहे,
कुछ अदब से बा-पोश हुए,
कुछ दौलत में मशगूल हुए,
कुछ मजबूर खानाबदोश हुए
तुझसे एक कमरे में रहा ना गया,
पैदल ही गाँव को चला गया,
मेरा एक कमरा कम जो पड़ा,
बड़े मकाँ की तलाश में निकल पड़ा
तू तरस रहा था निकलने को,
मैंने कोसा निकलने वालों को,
तू भी खोज रहा गुमनामों को,
मैंने भी खोया कुछ मतवालों को.
तूने जो भी किया वो सही किया,
और मेरी भी कोई ख़ता नहीं,
मेरी कश्ती तुझसे जुदा भले हो,
लेकिन मेरा तूफ़ाँ तुझसे जुदा नहीं.
लोकेश प्रताप त्रिपाठी – लोकी