नियम तेरह ग्यारह के, कहुं समझ ना आयें लोक ।
दोहा तुम यो लिख दियो, कौन रहा है रोक ।।
लोक भीड़ ऐसी जुटी, सब तर भागम भाग ।
हाथ लगा ना देखियो, कान उड़ा गओ काग ।।
नगर विकास ऐसो भयो, पाँव रखन को नाय,
गाड़ी घोड़ा घाट एक, पैदल चाल सुहाय ।।
एक बुज़ुर्गवार नज़र हुए
कुल आठ ज़ुल्फ़ बशर हुए
हज्जाम का ये तंज़्ज़ उन्हें
काटूँ या फिर गिनूँ इन्हें ?
तू फ़िक्र ना कर ग़रूर है,
गिन के आठ ये ज़रूर है
समझ इश्क़ की परवाह तू
बस रंग दे इन्हें सियाह तू.
ताऊ गए जब नाउ को,
सर पे आठ ले बाल,
काटूँ -गिनूँ -के का करूँ,
टेढ़ी हो गयी चाल.
ताऊ तन के हुंकार पड़ो,
इब जान उमर का फेर,
काला रंग तौ काढ़ दियो,
मन्ने हो रई देर.
लोकेश प्रताप त्रिपाठी – लोकी