मेरी ज़ुल्फ ने आंखें छुपाकर,
गाल थपथपाकर,
कानों से किया सवाल,
क्यों उनके हाथों ने मुझे संवारकर,
कर दिया सवालिया बवाल।
हाथ कंपकंपाए, उंगलियां शर्मायीं,
हो गयी जानो कोई गुस्ताखी,
बिन कहे गुज़र रही थी मुकुल
वो रात, पैमाना और साक़ी।
इक अनायास सा था सरूर,
लगा हुई ग़लती से साज़िश,
आईने से नज़र जो फिर मिली,
दोनों ओर सिर्फ अश्कों की थी बारिश।
# सस्नेह ‘मुकुल’